सनातन धर्म, भारतीय उपमहाद्वीप से उत्पन्न हुआ एक धर्म है, जिसका अर्थ है - शाश्वत या 'सदा बना रहने वाला' । सनातन धर्म जिसे हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म के नाम से भी जाना जाता है। इसे दुनिया के सबसे प्राचीनतम धर्म के रूप में भी जाना जाता है।
- सनातन धर्मी के लिए किसी विशिष्ट पद्धति, कर्मकांड, वेशभूषा को मानना जरुरी नहीं।
- प्रचीन धर्मों में से एक सनातन धर्म की विशालता से सभी अवगत हैं। बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों को उनके गुरूओं द्वारा स्थापित किया गया और फिर अनुयायियों ने उसका प्रचार किया हैं।
- भारत की सिंधु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। यह धर्म, ज्ञात रूप से लगभग 12000 वर्ष पुराना है जबकि कुछ पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हिंदू धर्म 90 हजार वर्ष पुराना है।
सनातन धर्म में व्यक्ति के जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया है। इन आश्रमों में रहते हुए मनुष्य को 16 प्रकार के संस्कारों का पालन करना अनिवार्य माना गया है। महर्षि वेदव्यास ने 'संस्कार' शब्द को परिभाषित करते हुए बताया है कि संस्कार अपने भीतर कई गुणों को समाए हुए है। संस्कार किसी भी धर्म की वह चेतना है, जो उस धर्म के मानने वालों को जीने का सलीका सिखाती है। 16 संस्कारों में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी कर्मों का उल्लेख किया गया है।
आइए जानते हैं हिन्दू धर्मे के प्रमुख 16 संस्कार
(1).गर्भाधान संस्कार: महर्षि चरक ने बताया है कि प्रसन्न चित्त और मन के लिए स्त्री एवं पुरुष को उत्तम भोजन और सकारात्मक रहना चाहिए। इसी तरह उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिए गर्भधान संस्कार किया जाना चाहिए। इसी संस्कार से वंश वृद्धि होती है।
(2).पुंसवन संस्कार: इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य गर्भ में पल रहे बच्चे की सुरक्षा और सवास्थ्य का विशेष ध्यान रखना है। कहा जाता है कि गर्भवति स्त्री को रोजाना गीता और रामायण जैसे पवित्र ग्रंथों का ध्ययन रोजाना करना चाहिए। इससे शिशु का विचार तंत्र विकासित होता है।
(3).सीमन्तोन्नयन संस्कार: गर्भावस्था की तीसरी तिमाही तक एक शिशु का अपनी माँ के गर्भ में इतना विकास हो चुका होता हैं कि वह सुख-दुःख की अनुभूति कर सकता है, बाहरी आवाज़ों को समझ सकता है तथा उन पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकता है।
(4).जातकर्म संस्कार: जन्म के बाद नवजात शिशु के नालच्छेदन (यानि नाल काटने) से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इसके अंतर्गत शिशु को शहद और घी चटाया जाता है साथ ही वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।
(5).नामकरण संस्कार: शिशु के जन्म के 11 दिन बाद नवजात शिशु को नाम दिया जाता है, जो जीवन पर्यन्त उसके साथ रहता है।
(6).निष्क्रमण संस्कार: निष्क्रमण् संस्कार के तहत पहली बार नवजात शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है।
(7).अन्नप्राशन संस्कार: जन्म से छठे महीने में उसका अन्नप्राशन संस्कार होता है। जिसमें शिशु को चांदी की कटोरी या थाली में रखा भोजन परोसा जाता है।
(8).चूड़ाकर्म/मुंडन संस्कार: इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार काटे जाते हैं। यह संस्कार तब किया जाता है, जब शिशु की आयु एक वर्ष, तीन या पांच वर्ष अथवा सातवें वर्ष हो जाती है।
(9).कर्णवेध या कर्ण-छेदन संस्कार: आभूषण पहनने के लिए, राहु-केतु के प्रभाव को कम करने के लिए किया जाता है। आयुर्वेद में बताया गया है कि कर्णवेध संस्कार करने से श्रवण शक्ति में बढ़ोतरी होती है।
(10).विद्या आरंभ संस्कार: शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार शुरू होता है और इसके बाद बच्चा अपनी पढाई शुरू करता है।
(11).उपनयन या यज्ञोपवित संस्कार: यह संस्कार मुख्यतः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में आयोजित किया जाता है। इस दौरान वेद मंत्रों के बीच बालकों को जनेऊ पहनाया जाता है। मान्यता है कि उपनयन संस्कार के बाद ही बालक वेदों का अध्ययन गुरु के पास जाकर कर सकता है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं जिन्हें-ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का प्रतीक माना गया है।
(12).वेदारंभ संस्कार: इस संस्कार का उद्देश्य व्यक्ति को वेदों का ज्ञान प्रदान करना है। जिससे वह जीवन के सभी मूल्यों का सही रूप से पालन कर सके।
(13).केशांत संस्कार: दरअसल एक शिष्य को गुरुकुल में रहते हुए पूरी तरह से ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इसलिये उसका सिर के बाल तथा दाढ़ी को कटवाना वर्जित होता है किंतु जब उसकी शिक्षा पूरी हो जाती है।
(14).समावर्तन संस्कार: इस संस्कार के पश्चात एक मनुष्य गुरुकुल से शिक्षा ग्रहण कर पुनः अपने घर व समाज को लौटता है तथा गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है।
(15).विवाह संस्कार: इस संस्कार में वर एवं वधु वेद मंत्रों के साथ जीवन पर्यन्त साथ निभाने का वचन देते हैं। साथ ही माता-पिता और देवी-देवताओं के आशीर्वाद से नए गृहस्थ जीवन का शुभारंभ करते हैं। इस संस्कार का पालन करने से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त हो जाता है। शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच।
(16).अंत्येष्टी/श्राद्ध संस्कार: इस संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित कर उन्हें मृत्युलोक से मुक्त कर दिया जाता है। हिन्दूधर्म के अनुसार, पिता और माता को मुखाग्नि देने का अधिकार केवल पुत्र का है।
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